Pushtimarg - पुष्टिमार्ग

     श्री वल्लभाचार्य का मत है कि घोर कलिकाल में ज्ञान, कर्म, भक्ति, आदि मोक्ष-प्राप्ति के साधनों की न तो पात्रता रही है और न क्षमता ही है। इन साधनों के उपयुक्त देश, काल, द्रव्य, कर्ता, मंत्र और कर्म या तो नष्ट हो गये हैं या दूषित हो गये हैं। अतः इन उपायों से मोक्षप्राप्ति या भगवान् की प्राप्ति कर सकना संभव नहीं रह गया है। ऐसी विषम परिस्थिति में भी सबके उद्धार के लिए अवतरित होने वाले सर्वसमर्थ, परम कृपालु भगवान् श्रीकृष्ण ही अपने स्वरूप के बल से, प्रमेय बल से, अपने भगवत्-सामर्थ्य से जीवो का उद्धार कर सकते हैं। अतः श्री वल्लभाचार्य घोषित करते हैं – ‘कृष्ण एव गतिर्मम’ अर्थात् एकमात्र श्रीकृष्ण ही हमारी गति, अनन्य आश्रय या एकमात्र शरणस्थल हैं। इस निर्णय पर पहुँचकर आपने शास्त्रों में वर्णित, भगवत्-प्राप्ति के साधन रूप से प्रतिष्टित, विहित, विधि-प्रधान भक्तिमार्ग से भिन्न विशुद्ध प्रेमप्रधान स्वतंत्र भक्तिमार्ग का उपदेश दिया। इसे आपने पुष्टिमार्ग नाम दिया। इसे आप निःसाधनों का राजमार्ग कहते हैं। जिनके पास भगवत्-प्राप्ति के उपाय रूप कर्म, ज्ञान, भक्ति आदि कोई साधन नहीं है, ऐसे निःसाधन भक्तों के लिए भगवत्-कृपा ही भगवत्प्राप्ति का एकमात्र साधन है। यही पुष्टिमार्ग है। श्रीमद् वल्लभाचार्य ने अपने भक्तिमार्ग का नामकरण पुष्टिमार्ग श्रीमद्भागवत के आधार पर किया है।

    श्रीमद्भागवत में शुकदेवजी ने पुष्टि अर्थात् पोषण का अर्थ भगवान् का अनुग्रह किया है। भगवान् श्रीकृष्ण का अनुग्रह या कृपा ही पुष्टि है। अनुग्रह या कृपा भगवान के सभी दिव्य धर्मो में सबसे बलिष्ठ है। भगवत्-कृपा के सम्मुख भगवत्-प्राप्ति में बाधा उपस्थित करने वाले काल, कर्म, स्वभाव आदि कोई भी बाधक तत्व टिक नहीं पाते हैं। शास्त्रों में भगवान् की प्राप्ति करने के ज्ञान, भक्ति आदि जो भी साधन बताये गये हैं, वे सब जीव-कृति-साध्य है, अर्थात् उन साधनो के लिए जीव को स्वयं प्रयत्नशील होना पड़ता है, स्वयं ही इनकी साधना करनी पड़ती है, इसलिए इन्हे ‘विहित साधन’ भी कहा जाता है। इन मार्गो को मार्यादामार्ग अभिधान दिया गया है। शास्त्रों में वर्णित ‘मर्यादा मार्ग’ के ऊपर बताये गये विहित साधनों के अभाव में भी, जीव की पात्रता-अपात्रता, योग्यता-अयोग्यता पर विचार न करते हुए जब भगवान् अपने स्वरूप बल से, भगवद्-सामर्थ्य से जीव का उद्धार कर देते हैं तो उसे पुष्टि कहा जाता है। पुष्टिमार्ग का अर्थ उस प्रेमप्रधान भक्तिमार्ग से है, जहां भक्ति की प्राप्ति भगवान् के विशेष अनुग्रह से, कृपा से ही संभव मानी जाती है तथा यह दृढ़ विश्वास किया जाता है कि भगवान् जिस पर कृपा करते हैं, जिसे वे मिलना चाहते हैं, उसे ही मिलते हैं। इस विषय में जीव के प्रयत्न कोई महत्त्व नहीं रखते। मर्यादाभक्ति और पुष्टिभक्ति के सन्दर्भ में बन्दरिया के बच्चे और बिल्ली के बच्चों का उदाहरण दिया जाता है। बन्दरिया के बच्चे को अपनी माँ को स्वयं ही पकड कर रखना पड़ता है। इसी प्रकार मार्यादामार्गीय भक्त को भगवत्प्राप्ति के लिए स्वयं ही प्रयत्नशील होना पड ता है। बिल्ली के बच्चे को अपनी ओर से कुछ भी नहीं करना पड़ता। उसकी माँ को ही उसे मुहँ से पकड़ कर उठाकर ले जाना पड़ता है। पुष्टिमार्गीय भक्त के लिए भगवान् स्वयं ही साधन बन जाते है, बिल्ली के बच्चे (मार्जार शावक) की भाँति। पुष्टि पर, भगवत्कृपा पर कोई भी नियम लागू नहीं होता।

     पुष्टिमार्ग पर भगवान् का अनुग्रह ही नियामक होता है, अन्य कोई नियम या शास्त्रीय विधान नियामक नहीं होता। मर्यादा भगवान् के अधीन होती है, लेकिन पुष्टि स्वाधीन होती है। पुष्टि में भक्त का स्वतंत्र्य होता है, अर्थात् कृपालु भगवान अपने निःसाधन प्रेमी भक्त की इच्छानुसार कार्य करते हैं। भगवान् इसी कारण यशोदा मैया की इच्छानुसार रस्सी में बँध गये थे तथा गोपियों की इच्छा से छछिया पर भर छाछ पर नाचते थे। पुष्टिमार्ग में भक्त का दैन्य ही भगवत्कृपा का साधन है। श्री वल्लभाचार्य का मत है कि पुष्टि जीव की सृष्टि भगवतरूप-सेवा के लिए ही होती है। भगवान् पुष्टि भक्त के हृदय में अपने प्रेम बीज रख देते हैं। भक्ति से वह बढ़ता चलता है। क्रमशः आसक्ति और व्यसन की स्थिति तक पहुँच जाता है। इसलिए पुष्टिजीव को सर्वदा सर्वभाव से भगवत्सेवा करना चाहिए। यह उसका धर्म है, यही उसका परम कर्त्तव्य है। इसके बाद तो प्रभु उसके कल्याण के लिए सब कुछ करेंगे ही, अतः उसे अन्य कोई चिन्ता नहीं करनी चाहिए। भगवत्सेवा न तो कोई कर्मकाण्ड और न पार्ट टाईम जाब है। भगत्सेवा तो भगवत्-प्रवणता है, प्रभु में तन्मयता है। जैसे गंगा की धारा निरन्तर बहती ही रहती है तथा अन्ततः अपनी गन्तव्य समुद्र में मिल जाती है, उसी प्रकार भक्त के मन में प्रभु के प्रति प्रेम का सतत निरन्तर, अखंड प्रवाह भगवान् के प्रति होना चाहिए। उसका मन भगवान् में तल्लीन रहना चाहिए। यह स्थिति क्रमशः परिपक्व होती चलती है।

     भगवत्प्रेम का निरूपति बीज सांसारिक विषयों के त्याग और भगवत्-नाम-लीला के स्मरण-श्रवण-कीर्तन आदि से बढ़ने लगता है और भगवान् के प्रति रूचि भगवत्-प्रेम का रूप धारण कर लेती है। जब भगवान् में प्रेम हो जाता है तो अन्य जीवों अन्य विषयों में होने वाले राग का स्वतः नाश हो जाता है। भगवत्-प्रेम का यह स्वभाव ही है कि वह अन्यत्र के राग (लगाव, प्रेम) को भुला देता है और नष्ट कर देता है। यह प्रेम भगवत्सेवा एवं कथा (स्मरण-कीर्तन-श्रवण) से बढ़ता हुआ भगवद्-आसक्ति में परिणत हो जाता है। भगवान् के प्रति अन्तर्मन से आसक्त भक्त को भगवत्-सम्बंध से रहित समस्त पदार्थ, व्यक्ति, क्रियाएँ, भाव, विचार आदि बाधक और अनात्म प्रतीत होने लगते हैं। धीरे-धीरे भगवत्प्रेम तन्मयता, तल्लीनता और व्यसन की स्थिति में पहुँच जाता है। वह क्षणभर भी भगवान् के बिना नही रह सकता, या तो वह भगवत्सेवा करता है या भगवत्स्मरण, भगवत्-लीला और गुणों के गान में तल्लीन रहता है। यही जीव की कृतार्थता की स्थिति है। श्री वल्लभाचार्य प्रेमपूर्वक की जाने वाली श्रीकृष्ण -सेवा को ही भक्ति मानते हैं। उन्होने सर्वत्र भगवत्-पूजन का अर्थ भगवत्-सेवा ही माना है। इसी कारण पुष्टिमार्ग को सेवामार्ग कहा जाता है।

महाप्रभु वल्लभाचार्य ने अपने सेवामार्ग को न केवल कर्ममार्ग से और ज्ञानमार्ग से भिन्न बताया है, अपितु वे इसे शास्त्रीय विधि-विधानों वाले विहित भक्ति मार्ग से भी अलग मानते हैं, अतः पुष्टिमार्ग कर्म-ज्ञान-भक्ति तीनों मार्गो से विलक्षण चतुर्थ मार्ग या तुरीय मार्ग कहलाता है। भक्तिमार्ग से पुष्टिमार्ग इस अर्थ में विलक्षण है कि विहित भक्तिमार्ग में भगवान् की पूजा-अर्चना शास्त्रीय विधि से मंत्रोच्चार के साथ सम्पन्न की जाती है, किन्तु पुष्टिमार्गीय भगवत्सेवा विशुद्ध स्नेहात्मिका, भावात्मक होती हैं। श्री वल्लभाचार्य पूजा और सेवा को भी भिन्न मानते हैं। पूजा शास्त्रीय विधि-विधान से होती है, जबकि सेवा में स्नेह, प्रेम ही प्रधान है। आपका मत है कि विविध देवी-देवताओं या भगवान् के विभूति रूपों की अर्चना पूजा है, सेवा नहीं। इनकी सेवा का समावेश कर्ममार्ग के अन्तर्गत है, किन्तु पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण की अर्चना भक्तिमार्गीय सेवा है, कर्ममार्गीय अनुष्ठान नहीं। श्रीवल्लभाचार्य की सुदृढ़ मान्यता है कि भगवान् की प्राप्ति स्नेहात्मिका सेवा से ही होती है, न कि विधि-विधान-प्रधान कृतिरूपा (कर्मकाण्ड रूपा) पूजा से। कृति का सार्वजनिक प्रदर्शन हो सकता है, किन्तु स्नेह तो शुद्ध रूप से व्यक्तिगत और गोपनीय होता है। व्यक्तिगत प्रेम का प्रदर्शन करने से वह रस न रहकर रसाभास हो जाता है। इस कारण श्री वल्लभाचार्य के सेवामार्ग (पुष्टिमार्ग) में भगवान् श्रीकृष्ण की गृहसेवा होती है। वहाँ सार्वजानिक मंदिर नहीं होते। नन्दालय या निजी हवेली में निजी रूप से व्यक्तिगत स्तर पर गृहसेवा की जाती है। बालकृष्ण की यह गृहसेवा माता यशोदा के वात्सल्य भाव से की जाती है। स्नेहमयी भावात्मक गृहसेवा में परिवार के सदस्य एवं अत्यन्त घनिष्ट आत्मीय भगवदीयजन ही सम्मिलित होकर सहभागी बन सकते हैं।

     पूजा षोडशोपचार, धूप-दीप, नैवेद्य, नमस्कार, स्तोत्रपाठ आदि में समाप्त हो जाती है, किन्तु सेवा में भगवत्-सम्बंधी प्रत्येक कार्य जैसे भगवान के बर्तन माँजना, आँगन झाड़ना-पोंछना-लीपना, पानी भरना आदि भी भगवत्सेवा के अन्तर्गत ही है। पूजामार्ग में जो वस्तु भगवान् को समर्पित कर दी जाती है, उसका ग्रहण करना निषिद्ध है, किन्तु सेवामार्ग में प्रत्येक वस्तु भगवान् को समर्पित करने के उपरान्त ही प्रसाद के रूप में ग्रहण करने का विधान है। सेवामार्ग में असमर्पित वस्तु सर्वथा त्याज्य है, वर्जित है। पूजा नियम समय पर, निश्चित अवधि में सम्पन्न हो जाती है, किन्तु भावात्मक सेवा सर्वदा निरन्तर चलती रहती है। श्री वल्लभाचार्य का कथन है कि भगवत्-प्रवण चित्त हो जाना ही सेवा है। पूजामार्ग में प्रतिमा की प्राण-प्रतिष्ठा से उसमें देवत्व का आवेश होता है, किन्तु सेवामार्ग में भाव से भगवद्-आविर्भाव माना जाता है। पूजामार्ग में भगवान् की प्रतिमा का अर्चन होता है, किन्तु सेवामार्ग में उसे साक्षात् भगवान् का स्वरूप मानकर ही भावात्मक सेवा की जाती है। इसी कारण खंडित प्रतिमा की पूजा निषिद्ध मानी जाती है, जबकि सेवामार्ग में भगवत्-स्वरूप खंडित भी हो जाए तो भावात्मकता होने के कारण, यदि उससे भावों में बाधा न पहुँचती हो तो, वह सेवनीय होता है। श्री वल्लभाचार्य का निर्देश है कि विधि की अपेक्षा स्नेह बलिष्ठ है। सेवामार्ग में भगवत्सुख ही सर्वोपरि है। पूजा सकाम हो सकती है, किन्तु सेवा सदैव निष्काम, केवल भगवत्सुख के लिए ही होती है।

    कलियुग में कर्ममार्ग, ज्ञानमार्ग और शास्त्रोक्त भक्तिमार्ग का अनुकरण करना संभव नहीं है। कलियुग में जीव के कल्याण का एकमात्र निश्चित् और सुगम उपाय भगवान् श्रीकृष्ण की भक्ति ही है। उसी से भगवान् की कृपा या प्रसन्नता रूपी फल की प्राप्ति संभव है। अतः पूर्ण पुरूषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण की भावनीय सेवा ही पुष्टिमार्गीय जीव का एकमात्र धर्म है। पुष्टिमार्ग प्रेम पंथ है। इसमे भाव की प्रधानता है, शास्त्रीय विधि-विधानों की नहीं। शुद्धप्रेम ही पुष्टिभक्ति है। भगवान् के प्रेम का द्वार सभी के लिए खुला है। इसमें किसी का भी प्रवेश वर्जित नही है। स्त्री हो चाहे पुरुष, हिन्दु हो चाहे अन्य धर्म का अनुयायी, ब्रह्मण हो या शूद्र सभी इस प्रेममार्ग मे प्रवेश पा सकते है। भगवान् श्री गोवर्धनधर (श्रीनाथजी) बायीं भुजा उठाकर भक्तों को पुकार रहे हैं, किन्तु हर व्यक्ति की प्रवृति भगवान् की ओर नहीं होती। भगवान् स्वयं ही कृपा करके जिसका वरण करते हैं, वही उनकी ओर बढ़ सकता है।भगवान् की कृपा जीव की पात्रता, उसके साधन, उसके कर्म आदि का विचार नहीं करती। यह पतितों के लिए भी महान् आश्वासन है और निःसाधनों के लिए आशा का केन्द्र भी। पुष्टिमार्ग का संदेश है कि अपने विकृत अतीत से पीड़ित रहने की कोई आवश्यकता नहीं है। पातितपावन प्रभु जिसे स्वीकार कर लेते हैं, वह उत्तम हो जाता है। साधनों के अभाव में भी हीनता का भाव उत्पन्न मत होने दो। साधनहीनता और देन्य तो प्रभु के अनुग्रह के सबसे बड़ें कारण हैं। सभी में भगवान् हैं। इसलिए सभी में कृष्ण-भावना रखते हुए सबसे प्रेम करो, किसी से घृणा मत करो।

     पुष्टिमार्ग नारी की महिमा प्रकट करता है। श्रीवल्लभाचार्य का मत है कि स्त्रियों में भगवान् को देखने की विशेष दृष्ठि होती है। भगवान् भी उन पर विशेष कृपा करते हैं। पुष्टिमार्ग कृष्णप्रेममयी व्रजांगनाओं का, गोपियों का मार्ग है। गोपियाँ प्रेम की ध्वजा हैं, प्रेममार्ग की गुरू हैं। निकुंजलीला में उनका विशेषाधिकार है। पुष्टिमार्ग में नंदालय की भावना से, माता यशोदा के भाव से, बालकृष्ण की सेवा की जाती है। वात्सलय भाव सबसे निर्मल और पवित्र भाव है। बच्चों में भगवान् सहज ही दृष्ठिगोचर होते हैं। सारा विश्व भगवान् की लीला है। भगवान् स्वयं ही लील के लिये अनेक रूपों में बन गये हैं। प्रत्येक वस्तु के भोक्ता प्रभु ही हैं। हम तो उनके दास हैं। प्रभु को समर्पित करके जो प्रसाद रूप में मिला है, उसी से हमारा अधिकार है और उसी में जीवन-यापन करने में हमारी धन्यता है। हसंसार में किसी भी वस्तु के प्रति स्वामित्व भाव रखना अनुचित है, क्योकि स्वामी तो केवल भगवान् है। अतः हर वस्तु का पहले भगवान् की सेवा में विनियोग करें। श्री वल्लभाचार्य का मत है कि अंहकार चाहे धन का हो, सत्ता का हो, जाति या वर्ण का हो, विद्या का हो या किसी भी प्रकार का क्यों न हो, वह भगवान् की प्राप्ति में बाधक है। भगवान् दैन्य से प्रसन्न होते हैं। अतः हर प्रकार का अहंकार त्याज्य है। भगवान् की सेवा के लिए धन दे देने मात्र से भगवान् की सेवा नही हो जाती। उससे तो अहंकार बढ़ता है, इसलिए भगवान् की सेवा में अपना तन, मन और धन लगाना चाहिए। भगवान् का द्रव्य, देवद्रव्य या धर्म का द्रव्य अपने लिये उपयोग में लेने से मनुष्य का पतन और सर्वनाश हो जाता है।

     भगवान् को या भगवत्स्वरूप भागवतजी को आजिविका का या धनसंग्रह का साधन नहीं बनाना चाहिए। गृहस्थ जीवन गरिमामय है। अपने घर में रहते हुए परिवार, समाज, राष्ट्र और मानव जाति के प्रति अपने दायित्व का निर्वाह करते हुए भी भगवान् को पाया जा सकता है। अपने घर में रहकर, अपने धर्म का पालन करते हुए परिवारजनों के साथ भगवान् की सेवा करना ही जीवन की सार्थकता है। व्यक्ति को अहंता और ममता का, मैं और मेरेपन का समिति घेरा बनाकर उसमें केन्द्रित नही हो जाना चाहिए। अहंता और ममता में घिरा हुआ व्यक्ति काल्पनिक भ्रमजाल में फँसा रहता है। इस घेरे से निकलकर सम्पूर्ण जगत् को भगवत्स्वरूप देखते हुए, भगवत्लीला का आनन्द लेते हुए, भगवत्सेवामय जीवन जीने से मनुष्य जीते-जी मुक्ति का आनंद पा सकता है। पुष्टिमार्ग की मान्यता है कि भगवत्सेवा की दृष्ठि से किया जाने वाला प्रत्येक कार्य भगवत्सेवा ही है। अहंता और ममता को दूर करके, भगवद्भाव से अपने पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, मानवीय कर्त्तव्यों का पालन करना चाहिए। पुष्टिमार्ग के अनुसार भगवद्धर्म ही आत्मधर्म है। शेष सभी धर्म बहिरंगधर्म हैं। किन्तु जब तक देहाभिमान है, तब तक बहिरंग धर्म मुख्य होते हैं। उनके साथ ही भगवद्धर्म का निर्वाह करना चाहिए। सभी वस्तुओ के प्रति ममतारहित होकर उन्हे प्रभु को समर्पित कर प्रसाद के रूप में ग्रहण करना तथा अहंकार और फलाकांक्षा से मुक्त होकर भगवान् के लिए कर्म करना तथा भगवान् के लिए ही जीवन जीना पुष्टिमार्ग के लिए मूलमंत्र है। पुष्टिमार्ग का पहला और अन्तिम जोर भगवत्कृपा पर है। प्रभु-कृपा का निरन्तर अनुभव करना, उसी पर अटूट विश्वास रखना, प्रभु सर्व प्रकार से सर्वदा भक्त की रक्षा करेगें, यह दृढ़ विश्वास बनाये रखते हुए जीवन की हर अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति में विवेक और धैर्य बनाये रखना तथा अशक्य या सुशक्य, सहज या कठिनतम, हर स्थिति में प्रभु श्रीकृष्ण का ही अनन्य आश्रय रखना पुष्टिमार्गीय जीवन-प्रणाली की अनिवार्य शर्त है। १. पुष्टिमार्गीय वैष्णव किसी कामना की पूर्ति या कष्ट-निवारण के लिए प्रार्थना नही करता। प्रभु सर्वत्र हैं, हमारे अन्तर्यामी हैं, हमारे परम हितैषी हैं, सर्वसमर्थ हैं। अतः न तो हमें चिन्ता करनी चाहिए और न याचनारूप में प्रार्थना करनी चाहिए। २. वैष्णव जीवन सहज होता है। उसमें हठ या दुराग्रह का स्थान नहीं है। अतः सहज जीवन जीना चाहिए। ३. महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य का मत है कि विद्वान् सन्मार्ग के रक्षक हैं, अतः उन्हें निर्भीक होकर अपनी बात कहनी चाहिए। समाज और शासन का भी कर्त्तव्य है कि वे विद्वानों की बात सम्मानपूर्वक सुने, उनकी रक्षा करें और उनकी आजिविका की व्यवस्था करें। ४. पुष्टिमार्ग आचरण पक्ष पर विशेष बल देता है। श्रीवल्लभाचार्य का आदेश है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी सम्पूर्ण शक्ति से स्वधर्म का पालन करें, चाहे कैसा ही भय या प्रालोभन क्यों न हो, विधर्म से बचना चाहिए। अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण रखकर पूर्ण पवित्र जीवन जीना चाहिए। यह सदा ध्यान में रखें कि विषयों से आक्रान्त देह में और विषयों से आविष्ट चित्त में भगवान् नहीं विराजते हैं। ५. जीवन और जगत् की अनेकरूपता और विविधता में भगवान् ही विभिन्न नाम-रूप धारण करके लीला कर रहे हैं, अतः जीवन की विविधता और विभिन्नता को सहर्ष स्वीकार करना चाहिए, उसका आनन्द लेना चाहिए। ६. सब कुछ भगवद्रूप है, भगवान् का है और भगवान् के लिए है, इसलिए कही भी स्वामित्व की भावना न रखें। कही भी अंतरतम से निजी रूप से न उलझे और न पलायन ही करे। विश्व के रंगमंच पर भगवान् ने हमें जो रोल दिया है, उसे अपनी सम्पूर्ण योग्यता से अदा करें। ७. पुष्टिमार्ग या सेवामार्ग की शिक्षा है कि राग, भोग और श्रृंगार की भावना को भगवान् की ओर मोड़ दे, उसका उन्नयन और परिष्कार करें। अपने सम्पूर्ण भावों को, रागात्मक वृत्ति को प्रभु को समर्पित कर दें। प्रभु ही भोक्ता हैं, उन्हें समर्पित कर भगवद्प्रसाद से जीवन-यापन करें। सौन्दर्य के महासमुद्र प्रभु श्रीकृष्ण है। अपनी सौन्दर्यवृत्ति और प्रेमवृत्ति को, अपनी रागात्मक वृत्ति को प्रेम और सौन्दर्य के निधान श्रीकृष्ण को समर्पित कर दें। प्रभु कलानिधि हैं। सभी कलाएँ उन्हे समर्पित कर दें। कलाओं को भगवान् की सेवा में समर्पित करने से उनमें दिव्यता आ जाती है। सूरदास आदि महाकवियों के काव्य में इसी समर्पण की दिव्यता है। ८. भगवान् श्रीकृष्ण सदानन्द हैं, पूर्णानन्द हैं, अगणितानन्द हैं, पूर्ण पुरूषोत्तम हैं। जीव उनका अंश है। प्रभु-सेवा करते हुए प्रभुकश्पा से उसमें तिरोहित आनन्द का अविर्भाव होता है और जीव भगवद्-आनन्द से मग्न हो जाता है। यही जीवन का चरम और परम फल है। पुष्टिमार्ग उसी की राह दिखाता है। श्री गोवर्धनधरण श्रीनाथजी की कृपा से ही जीव इस पथ पर चलता है।

     गोस्वामी श्री गोपीनाथजी श्रीमद्वल्लभाचार्य के ज्येष्ठ पुत्र गोपीनाथजी का जन्म विक्रम संवत् १५७० में हुआ था। जब आप केवल सत्रह वर्ष के थे तभी महाप्रभु वल्लभाचार्यजी भगवान् के निजधाम में पधार गये थे। आपका अध्ययन शंकर-वेदान्त के महान् पण्डित एवं भक्त श्री मधुसूदन सरस्वती के शिष्य श्री माधवानन्द सरस्वती के पास हुआ। आप संप्रदाय में महाप्रभु वल्लभाचार्य के प्रतिनिधि के रूप में माने जाते है। आपके दो ग्रन्थ प्रसिद्ध है- १. ‘साधनदीपिका’ २. ‘सेवाश्लोका’। इन ग्रन्थों में आपने वैष्णव साधना-पद्धति और प्रभुसेवा संबंधी महत्त्वपूर्ण निर्देश दिये है। श्री गोपीनाथजी का तिरोधान श्री जगन्नाथपुरी में, जगन्नाथजी की सन्निधि में भगवत्-भावापन्न अवस्था में संवत् १५९९ में हो गया। गोपीनाथजी ने पुष्टि संप्रदाय को व्यस्थित करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया।

     गुसाँईजी श्री विट्ठलनाथजी गोपीनाथजी के तिरोधान के कुछ समय पश्चात् ही उनके पुत्र पुरूषोत्तमजी भी भगवत्लीला में पधार गये। उनके बाद गुसाँईजी श्री विट्ठलनाथजी ने पुष्ठि संप्रदाय को पूर्ण व्यवस्थित स्वरूप प्रदान किया। श्री विट्ठलनाथजी का प्राकट्य संवत् १५७२ (सन् १५१५ ई.) में पौष कृष्ण नवमी को हुआ था। श्री गुसाँईजी ने पुष्टिमार्ग के प्रचार-प्रसार के लिए देश के विभिन्न क्षेत्रों में प्रवास किया। गुजरात और सौराष्ट्र की तो आपने छह बार व्यापक यात्राएँ की। गुजरात में पुष्टिमार्ग का जो व्यापक प्रचार है, उसका बहुत कुछ श्रेय भी गुसाँई जी को है। श्री गुसाँईजी का सम्मान बादशाह अकबर भी करता था। बादशाह ने आपको न्यायाधीश के अधिकार दिये थे और वह समय-समय पर गुसाँईजी की दुआ माँगने भी आता था। मुगल राजवंश पर आपका प्रभाव तीन पीढ़ियों तक रहा। बादशाह जहाँगीर और शाहजहाँ ने भी समय-समय पर आपको अनेक सुविधाएँ प्रदान की थी।

     श्री गुसाँईजी प्रतिदिन कम से कम एक प्राणी को दीक्षा दिया करते थे। आपने अनेक योग्य सेवकों को पुष्टिमार्ग के प्रचार-प्रसार का दायित्व सौप रखा था। श्री गुसाँईजी का संबंध विभिन्न राजा-महाराजाओं से था, किन्तु भगवान् की सेवा के लिये वे राजकीय धन स्वीकार नहीं करते थे। यदि आग्रहपूर्वक कोई राजपुरूष आपको धन दे देता तो उसे गौ-सेवा में लगा देते थे। गरीबों की पवित्र भेंट को आप बहुत महत्त्व देते थे और उनसे प्राप्त भेंट को श्रीनाथजी की सेवा में सहर्ष लगाते थे। गरीबों और दीन-दुःखियों तथा पतितजनों के प्रति उनमें विशेष करूणा भाव था। आप अपने सेवकों को भी यह समझाते थे कि वैष्णव धर्म मानवता का भूषण है। वैष्णव में मानवीय संवेदना होना नितांत आवश्यक है।

     गुसाँईजी उच्चकोटि के दार्शनिक और विचारक थे। आपने महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य के अपूर्ण रह गये ‘अणुभाष्य’ की पूर्ति की तथा अपने ‘विद्वन्मंडन’ ग्रन्थ में शुद्धाद्वैतदर्शन के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया। ‘भक्तिहंस’ ग्रन्थ में भक्ति तत्त्व का विवेचन तथा ‘ श्रृंगाररसमण्डन’ ग्रन्थ में भगवत्-लीला का स्पष्टिकरण किया। ‘विज्ञप्ति’ में आत्मनिवेदन और भगवद्विरह की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है। ‘सर्वोत्तमस्त्रोंत’ में आपने श्रीमद्वल्लभाचार्य के व्यक्तित्व और कार्यो का सम्यक निर्देश करने वाले १०८ नामों से आपकी वंदना की है। गुसाँई विट्ठलनाथजी ने महाप्रभु के चार शिष्यों कुंभनदास, सूरदास, कृष्णदास और परमानंददास तथा अपने चार शिष्यों गोविन्दस्वामी, छीतस्वामी, चतुर्भुजदास और नंददास को सम्मिलित कर ‘अष्टछाप’ की स्थापना की तथा इन्हे ठाकुर जी के सम्मुख अलग-अलग दर्शनों के समय कीर्तन करने का दायित्त्व सौंपा।

     गुसाँईजी ने भगवत् सेवामें काफी विस्तार और विविधता प्रदान की। भवत्सेवा में थोडी सी भी असावधानी को वे अक्षम्य अपराध मानते थे। भगवत्सेवा में कलात्मक साधना का समावेश किया। गुसाँईजी ने संस्कृत और ब्रज दोनों भाषाओं में उत्कृष्ठ साहित्यसृजन किया है। ब्रजभाषा को तो आप ‘पुरूषोत्तम भाषा’ कहते थे। आपने तत्कालीन समाज के द्रष्ठीकोण मे व्यापक परिवर्तन किया तथा भगवान् के प्रति गहरी आस्था और समर्पण भाव जगाया। ‘भक्तमाल’ के लेखक नाभादासजी ने आपकी महत्ता प्रकट करते हुए लिखा है – श्री वल्लभसुत बलि भजन प्रताप तें कलियुग में द्वापर कियो।श्री गुसाँईजी ने अपने सेवकों को यह प्रेरणा दी की धन-वैभव और कला आदि गुणों की सार्थकता इसी मे है कि उनका विनियोग भगवत्सेवा में किया जाए। आपने लीला-प्रवेश (भगवत्धाम-प्रस्थान) के पूर्व अपने सातों पुत्रों को बुलाकर निधि का विभाजन किया। निधि का अर्थ धन-दौलत न होकर भगवान् के सेव्यस्वरूप की सेवा का दायित्व है। सातों पुत्रो को जो सात सेव्यस्वरूप प्रदान किये गये, उसके आधार पर पुष्टिमार्ग में सात गश्ह या पीठ माने जाते है और प्रधान पीठ श्रीनाथद्वारा का है। विक्रम संवत् १६४२ माध कृष्ण सप्तमी के दिन श्री गिरिराज गोवर्धन के मुखारविन्द के निकट कंदरा में प्रवेश कर आप भगवान की लीला में प्रविष्ट हो गये। कंदरा में केवल आपका उत्तरीय ही प्राप्त हुआ। गुसाँईजी ने पुष्टिमार्ग तथा भारतीय धर्म और संस्कृति की अपूर्व सेवा की। आप भारतीय जनता के लिये ‘धर्मसेतु’ और ‘भक्तिसेतु’ थे। आपका स्मरण करते हुए ‘नामरत्नाख्या स्त्रोंत’ में आपको ‘महापतितपावन’ कहा गया है। वास्तव में श्री गुसाँईजी महामाहिमाशाली दिव्य पुरूष थे, जिन्होने भारतीय धर्म साधना को नया आयाम दिया और वैष्णव भक्ति में अभिनव चेतना जगाई।

     गोस्वामी श्री गोकुलनाथजी गोस्वामी श्री विट्ठलनाथजी के चतुर्थ पुत्र गोकुलनाथजी अत्यंत प्रभावशाली और प्रतिभाशाली धर्माचार्य थे। आपने अनेक विद्वानों से शास्त्रार्थ कर पुष्टिमार्ग के प्रभाव को व्यापक बनाया। आपके जीवन की सर्वाधिक प्रसिद्ध घटना ‘मालातिलक प्रसंग’ है। कहा जाता है कि बादशाह जहाँगीर के राज्य में चिद्रूप नामक सन्यासी के प्रभाव में आकर एक राजकीय आदेश निकला कि कोई ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक (वैष्णवी तिलक) न करे और न तुलसी की माला गले में पहने। गोकुलनाथजी की प्रेरणा से वैष्णवों ने इस आदेश का प्रबल विरोध किया, सत्याग्रह किया और स्वयं गोकुलनाथजी, अत्यन्त वृद्ध होने पर भी बादशाह जहाँगीर से मिलने के लिये कश्मीर गये। उनसे प्रभावित होकर वैष्णवों को माला और तिलक धारण करने की पुनः राजकीय अनुमति मिली। श्री गोकुलनाथजी संस्कृत के विद्वान होने के साथ ही ब्रजभाषा के भी उत्कृष्ठ लेखक थे। आपके द्वारा लिखित ‘चौरासी वैष्णवों की वार्ता’, ‘निज वार्ता’, ‘बैठक चरित्र’, ‘वचनामृत ‘ आदि के द्वारा पुष्टिमार्ग के विचार और आचार को जन-जन तक पहुँचाने में अद्भुत सफलता मिली है। श्री गोकुलनाथजी ने जनमानस में पुष्टिमार्गीय सिद्धान्तों और जीवन-प्रणाली को स्थापित करने में अपूर्व योगदान किया।११ वर्ष २ माह १७ दिन भूतल पर विराज कर संवत् १६९७ फाल्गुन कृष्ण नवमी के दिन आप भगवतलीला में प्रविष्ट हो गये। आपका वियोग न सह पाने के कारण आपके ७८ सेवकों ने भी शरीर छोड़ दिया। आप अत्यन्त लोकप्रिय एवं त्यागी धर्माचार्य थे।

     आचार्य श्री हरिरायजी महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य की चौथी पीढी में संवत् १६४७ आश्विन कृष्ण पंचमी को श्री हरिरायजी का प्राकट्य हुआ। आपके पिता श्री कल्याणरायजी थे। आप श्री वल्लभाचार्य के समान ही देवी जीवों के उद्धार के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहते थे इसलिए वल्लभ संप्रदाय में आप को वल्लभाचार्य के समान ‘महाप्रभु’ इस गरिमामय संबोधन से स्मरण किया जाता है। आपमें गोस्वामी विट्ठलनाथजी के समान संगठन क्षमता, भगवतसेवा भावना, असाधारण विद्वता और पतितजनों के प्रति करूणा भाव था। अतः आपको गुसाँईजी विट्ठलनाथजी के समान ही ‘प्रभुचरण’ के नाम से भी सम्मानपूर्वक याद किया जाता है। श्री हरिरायजी में उत्कृष्ठ कोटि का दैन्यभाव था। वैष्णवों के प्रति उनकी भावना अद्भुत थी। एक पद में तो आपने यहाँ तक कहा है-‘ हों वारों इन वल्लभीयन पर, मेरे तन को करों बिछौना, शीश धरों इनके चरणनतर।’

      श्री हरिरायजी ने पुष्टिमार्ग के भावनापक्ष की श्रेष्ठ व्याख्या की तथा संस्कृत में विपुल ग्रन्थों का प्रणयन किया। आपके १५५ फुटकर ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं। श्री मगनलाल शास्त्री का मत है कि इनके संस्कृत, ब्रज आदि भाषो के ग्रंथों की संख्या लगभग १००० होगी श्री हरिरायजी के उत्कृष्ठ ग्रंथों के अतिरिक्त ब्रज भाषा में गोकुलनाथजी के वार्ता साहित्य पर भावप्रकाश लिखा तथा सेवा भावना पर भी अद्वितीय ग्रन्थ की रचना की। इसके अलावा ब्रजभाषा, पंजाबी, मारवाड़ी, और गुजराती में आपने बहुत से पदों की रचना की है। आपके द्वारा रचित ‘शिक्षापत्र’ और ‘वैष्णव वार्ताओं’ पर भावभावना वैष्णवों के घरों में नित्य सत्संग के रूप में पढे जाते हैं। हरिरायजी अगाध पांडित्य, भगवद्-रसानुभूति और दैन्य के अद्वितीय उदाहरण थे। हरिरायजी ने अपने ग्रन्थों में संप्रदाय के गूढ रहस्यों और भावनाओं का प्रकटीकरण किया है। आपने १२० वर्षो तक भूतल पर विराज कर वैष्णवों को प्रभु के कृपामार्ग में संलग्न किया।

      दशदिगन्तविजयजी गोस्वामी श्री पुरूषोत्तमजी गो. श्री पुरूषोत्तमजी का जन्म श्री वल्लभाचार्य की छठी पीढी में वि.स. १७२४ भाद्रपद शुक्ला एकादशी को गोकुल में हुआ था। आपके पिताजी गो. पीताम्बरजी महाराज थे। आप उद्भट विद्वान् और अप्रतिम भाष्यकार थे। आपने विपुल मात्रा में साहित्य- सृजन किया है। पुष्टि संप्रदाय की मान्यता के अनुसार आपने नौ लाख श्लोक लिखे हैं। गोस्वामी पुरूषोत्तम जी ने महाप्रभुजी के साथ तथा गुसाँईजी के ग्रंथो पर टीकाएँ लिखी है। श्री महाप्रभुजी के तो प्रत्येक ग्रंथ पर आपकी टीका है। यदि महाप्रभुजी के किसी ग्रन्थ पर आपकी टीका उपलब्ध नहीं है तो विद्वान् उस ग्रन्थ को महाप्रभुजी – कृत मानने में संदेह करते है। इनके अतिरिक्त ५२ उपनिषदों पर टीका तथा अन्य स्वतंत्र ग्रन्थ भी लिखें, जिनमें प्रस्थान रत्नाकर, अधिकरणमाला, भावप्रकाशिका आदि विशेष प्रसिद्ध है। आपके लिखें हुए एक सौ ग्रन्थ उपलब्ध हो चुके हैं। संभवतः इसी कारण आपको लेख वाले पुरूषोत्तमजी कहा जाता है। आपने समकालीन महापंडितों के साथ शास्त्रार्थ किया और विजय प्राप्त की। इसलिए आपको वल्लभ संप्रदाय में दशदिगन्तविजयी कहा जाता है। आपने शुद्धाद्वैत – दर्शन और पुष्टिमार्ग की महिमा को विभिन्न मतों के अनुयायी विद्वानों के बीच प्रतिष्ठित किया। आपके ग्रन्थों को दर्शनशास्त्र के आधुनिक विद्वान भी प्रामणिक मानते हैं तथा शुद्धादै़त दर्शन का विवेचन इनके ग्रन्थों के आधार पर करते हैं । पुष्टिमार्ग के प्रतिष्ठापक आचार्यों में आपका स्थान अद्वितीय है। गो. पुरूषोत्तमजी संस्कृति -प्रेमी आचार्य थे। आपने अणुभाष्य पर लिखी गई आवरण भंग नामक अपनी टीका में म्लेच्छों के समान वेश-भूषा धारण करने वाले तथा म्लेच्छ भाषा का प्रयोग करने वाले लोगों को मुर्ख कहकर तिरस्कृत किया है।

      श्री वल्लभाचार्य के पुष्टिमार्ग में सेव्य परब्रह्म श्रीकृष्ण कलानिधि और मधुराधिपति हैं। पुष्टिमार्गीय भगवत् सेवा में साहित्य, संगीत, शिल्प, स्थापत्य, चित्र, पाक, सज्जा, आरती आदि समस्त कलाओं का समावेश हो जाता है। पुष्टिप्रभु संगीत की स्वर लहरियों में जागते हैं। उन्ही के साथ श्रृंगार धारण करते हैं और भोग आरोगते हैं। संगीत के स्वरों में गाकयों को टेरते और व्रजांगनाओं को आहूत (आमंत्रित) करते हैं तथा रात्रि में मधुर संगीत का आनन्द लेते ही पोढ़ते हैं। पुष्टिमार्गीय संगीत का मूल, वैदिक उद्गीथ मे है जो कि सामगान पद्धति से होने वाला, गायन है। पुष्टिमार्गीय संगीत प्राचीन ध्रुपद शैली का शास्त्रीय संगीत है। ध्रुपद शैली का आलाप अनन्तकाल से, परमात्मा से बिछड़ी हुई आत्मा की तन्मयतापूर्ण पुकार है। अष्टछाप के आठों कवि उत्कृष्ठवाग्गेयकार संगीतज्ञ थे। पुष्टिमार्गीय मंदिरों में ध्रुपद गान की अविछिन्न और शुद्ध परम्परा अनवरत चली आ रही है। इसे हवेली संगीत भी कहते हैं। पुष्टिमार्गीय मंदिरों में ऋतु एवं काल के अनुरूप राग-रागिनियों के अनुरूप विष्णुपदों का, भगवद्भक्तिपूर्ण पदों का गान या कीर्तन होता है। इसके साथ परम्परागत वाद्य यंत्रों के द्वारा संगत होती है। पुष्टिमार्ग ने संगीत के क्षेत्र में सैकडो संगीतकार प्रदान किये है।

      चित्रकला को भी पुष्टिमार्ग में बहुत प्रोत्साहन मिला। पुष्टिमार्गीय चित्रकला का उद्र्गम व्रज क्षेत्र है और उसके केन्द्र ब्रजराज श्रीकृष्ण है, इसलिए उस पर ब्रज संस्कृति का गहरा प्रभाव होना स्वाभाविक है। संवत् १७२८ में भगवान् श्रीनाथजी नाथद्वारा पधारे तक पुष्टिमार्गीय चित्रकला में ब्रज संस्कृति के साथ राजपूत-शैली और मेवाड़ की कला का भी सुन्दर समन्वय हो गया। पुष्टिमार्गीय चित्रों में कृष्ण -लीला के असंख्य चित्र मिलते हैं, जिनमें व्यक्ति चित्रण के साथ प्रकृति चित्रण और लोक-जीवन का अंकन भी है। पुष्टिमार्गीय पीठों में महाप्रभुजी से लेकर आज तक के आचार्यो के सजीव आपादमस्तक चित्र भी मिलते है। पुष्टिमार्गीय भगवत् सेवा में हाथ-कलम से चित्रित चित्र ही मान्य है। सेव्य स्वरूपों के पीछे कलात्मक चित्रांकन वाली पिछवाईयाँ लगाई जाती है, जिनमें कृष्णलीला, पर्व, उत्सव, आदि का चित्रण होता है। ३०० वर्ष से अन्नकूट की दृश्यावली वाली पिछवाईयों में त्रिआयामी अंकन हो रहा है। इनके अलावा पुष्टिमार्ग की हवेलियों में भित्ति चित्र सर्वत्र मिलते हैं, जिनमें लोककला के भी दर्शन होते हैं। कुछ भित्ति-चित्रों में म्यूरल पेंटिंग की झलक है, तो कुछ चित्र सेको-फेस्को पद्धति में भी निर्मित किये गये है।

      साहित्य के क्षेत्र मे भी पुष्टिमार्ग का प्रदेय अतुलनीय है। संस्कृत, हिन्दी (ब्रज और खडी बोली) तथा गुजराती में प्रभूत मात्रा में पुष्टिमार्गीय साहित्य का सृजन हुआ है। उर्दू, पंजाबी, और तेलगु में भी कुछ साहित्य रचा गया है। अब अंग्रेजी में भी प्रचुर मात्रा में पुष्टिमार्गीय साहित्य का सृजन हो रहा है। ब्रज भाषा में गद्य और पद्य दोनों में प्राचीनतम साहित्य पुष्टिमार्ग का ही है। ब्रज भाषा के आदि कवि सूरदास अष्टछाप के अन्य कवि और अष्टछापेतर कवियों से लेकर भारतेन्दु हरिशचंद्र तक और आधुनिक काल में भी ब्रज भाषा में पुष्टिमार्गीय काव्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है। पुष्टिमार्गीय वार्ता साहित्य भी ब्रजभाषा के आरंभिक, प्राचीनतम एवं परिष्कृत गद्य साहित्य का प्रमाण है। विधाओं की द्रष्टि से न केवल गद्य और पद्य अपितु भावना साहित्य, टीका साहित्य, हास्य प्रसंग, वचनामृत साहित्य, नाट्यकृति, पत्र-साहित्य, घटना-विवरण, सिद्धान्त-विवेचन, पत्रकारिता आदि विभिन्न शैलियों, विधाओं और क्षेत्रों में पुष्टिमार्गीय साहित्य उपलब्ध होता है। इस प्रकार पुष्टिमार्ग में दर्शन, साहित्य और कला के विभिन्न क्षेत्रों को भी रचनात्मक प्रतिभा से समृद्ध किया है। इसका श्रेय श्रीमद्वल्लभाचार्य को है, जिन्होने सत्य की आराधना सौन्दर्य के माध्यम से करने की राह दिखाई।

      श्रीवल्लभाचार्य जी की सुनिश्चित मान्यता है कि जीवन का चरम-लक्ष्य भगवद् सेवा ही है। पुष्टिमार्ग सेवा का अधिकार ब्रह्मसम्बंध दीक्षा से मिलता है। पुष्टिमार्गीय में दो दीक्षाएँ होती है- पहली – नाम दीक्षा और ब्रह्मसम्बंध दीक्षा। नाम दीक्षा में शरण मंत्र ‘श्रीकृष्णः शरणंमम’ दिया गया है।

यह शिशु को भी दिया गया है। प्रत्येक स्त्री पुरूष यहां तक की पशु पक्षी भी इस मंत्र के अधिकारी है। स्वयं श्री वल्लभाचार्य जी अपने ”नवरत्न” नामक ग्रन्थ में सतत् सर्वात्मभाव से इस शरणमंत्र को जपने की आज्ञा दी है। शरण मंत्र का अवान्तर फल है। चित्त की शुद्धि और आसुर भाव की निवृति। इसका मुख्य फल है अधिकार और निवेदन मंत्र की योग्यता की प्राप्ति। जिस प्रकार बीज बोने से पूर्व खेत तैयार करना पड़ता है तभी बीज फलित होता है, उसी प्रकार ब्रह्मसम्बन्ध के पूर्व शरण-मंत्र लेना अनिवार्य है।

      शरण-मंत्र का सम्बंध भगवान् के उस स्वरूप से है, जो भक्तों के बहिर्दर्शनार्थ आविर्भूत होता है, उसी का स्मरण करने के लिए इस मंत्र में श्री शब्द है। शरणमंत्र से व्यक्ति को वैष्णवत्व मिलता है, यह वैष्णवत्व भक्ति मार्ग का सिंहद्वार है।

शरणमंत्र भावना :- शरण मंत्र ग्रहण करने के बाद वैष्णव को यह भावना करनी चाहिए कि इस लोक और परलोक संबंधी हर विषय में श्री हरिः ही सर्वथा, सब प्रकार से हमारे शरण स्थल है, आश्रय है। दुःख आ पडे़, कोई पाप, कर्म बन पडे़ , भय की स्थिति में कामनाएं अपूर्ण रहने पर, भक्त के प्रति अपराध हो जाने पर, भक्त द्वारा अपना अपमान होने पर, भक्ति में मन न लगने पर, अंहकार की भावना उत्पन्न होने पर, अपने पोष्य वर्ग के पोषण की दृष्टि से, स्त्री-पुत्र शिष्य आदि के द्वारा अपमान होने अर्थात् हर स्थिति में भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति शरण-भावना बनाए रखना चाहिए। चाहे सहज, सुशक्य कार्य कर रहे हों अथवा अशक्य, अत्यधिक कठिन और असंभव दायित्व उठाना पडे़ दोनो ही स्थितियों में भगवान् की सामर्थ्य पर विश्वास रखें। शरण भावना से देह, इंद्रिया आदि द्वारा लौकिक कार्यो में प्रवृति होने पर भी उनके प्राकृतांश की निवृति हो जाती है। धीर-धीरे उनमें अलौकिकता आ जाती है। लेकिन शरण भावना और भगवत् सेवा से अलौकिक मन की सिद्धि होने पर भी उसे भगवद् कृपा ही माने और सर्वार्थ सिद्धि में भी चित्त में श्री हरि की शरण भावना बनाएं रखे और निरन्तर शरण मंत्र बोलता रहे। अविश्वास कदापि न करें क्योंकि अविश्वासशरण भावना तथा भगवत प्राप्ति में बाधक है। श्री हरी के अतिरिक्त मन अन्यत्र कहीं जाना या अन्य से प्रार्थना करना भी सर्वथा छोड़ देना चाहिए इस कारण शरण भावना से भगवान् श्रीकृष्ण को ही एक मात्र आश्रय बना लेने से ही जीव का कल्याण हो सकता है। यह श्री मद् वल्लभाचार्य का मत है।

     मुख्य दीक्षाः ब्रह्मसंबंध नाम दीक्षा के बाद ब्रह्मसंबंध की पात्रता होती है। यह दीक्षा अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मानी जाती है, अतः इसका सैद्धान्तिक स्वरूप भी जान लेना आवश्यक है। भगवान के विद्-अंश जीव के ऐश्वर्यादिक भगवद् ‘धर्म, धर्म अविद्या से उत्पन्न अहंताममता मूलक अहंकार के कारण तिरोहित हो जाते है, वह विषयासक्त हो जाता है। जीवों की उत्पति भगवान् की सेवा के लिए हुई है और जगत् की सार्थकता भगवत् सेवा में विनियोग से ही है। किन्तु जीव संसारगत अहंता ममतात्मक माया के प्रभाव से स्वयं को कर्ता, भोक्ता और जगत के पदार्थो को अपने स्वामित्व की वस्तुएँ मान लेता है। इस भगवत् विरोधी मान्यता से वह बन्धन में पड़ता है और दूषित होता है।

     अतः श्री मद्वल्लभाचार्यजी ने उसे स्वाभाव दुष्ट, स्वभाव से दोषयुक्त कहा है। जीव की आत्मा शूद्र है। किन्तु जीव स्वभावतः दुष्ट है। भगवान अनवद्य, पूर्णत निर्दोष है, ये दोषरहित व्यक्ति और वस्तुओ को ही स्वीकार करते है। शुद्ध जीव ही भगवद् सेवा का अधिकारी है क्योंकि सदोष जीव को भगवान कैसे अंगीकार करें। यही समस्या, महाप्रभु श्रीमद्वल्लभाचार्यजी के सामने थी स्वयं भगवान ने ही सुलझा दिया। ब्रह्मसंबंध से देह और जीवों के सहज, देशज, कालज, संयोगज, स्पर्शज आदि सभी दोषों की निवृति होती है।

    ब्रह्मसंबंध अर्थात भगवान श्रीकृष्ण के प्रति आत्मनिवेदन करना चाहिए।

      ब्रह्मसंबंध दीक्षा के समय गुरू की आज्ञा प्राप्त कर जीव स्नान आदि से शु़द्ध होकर दीक्षा के लिए गुरू के पास पहुँचता है। गुरू की आज्ञानुसार वह तुलसी पत्र हाथ में लेकर गुरू द्वारा बोले गए मंत्र को दोहराता है, फिर आचार्य के द्वारा ही प्रभु के चरणारविन्द में तुलसी समर्पित करता है। इस दीक्षा से इस दीक्षा के व्यक्ति भगवान श्रीकृष्ण की पुष्टिमार्गीय सेवा का अधिकारी बनता है। ब्रह्मसम्बंध का मंत्र गद्य में है, जिसका भावार्थ इस प्रकार है- ”असंख्य वर्षो से हुए प्रभु श्रीकृष्ण के विरह से उत्पन्न ताप, क्लेश, आनंद का जिसमें तिरोभाव हो गया है, ऐसा मै अपना शरीर, इन्द्रियाँ, प्राण और अन्त करण तथा उनके धर्म, स्त्री, धर, पुत्र, सगे, सम्बंधी, धन, इहलोक, परलोक सब कुछ आत्मा सहित भगवान श्रीकृष्ण आपको समर्पित करता हूँ। मै दास हूँ। मै आपका ही हूँ। इस प्रकार आत्म निवेदन के द्वारा भगवान को स्वामी और स्वयं को उनका दास बना लेता है अपना सर्वस्व अर्पण कर देता है। इस सर्वसमर्पण से वह भगवान के साथ तदीयता सम्पादित करता है।

     ब्रह्मसंबंध में ब्रह्म के साथ स्थायी और कभी न छूटने वाला सुदश्ढ़ सम्बंध स्थापित हो जाता है। आत्म निवेदन से ही महद् विमश्ग्य प्रेम लक्षणा, फल रूपा भक्ति सिद्ध होती है।

     ब्रह्मसंबंध के बाद लौकिक या वैदिक कार्यो के लिए जिस वस्तु की आवश्यकता हो, उस वस्तु को आरम्य से ही भगवान को समर्पित किया जाय। ब्रह्मसम्बंध वाले व्यक्ति के लिए असमर्पित वस्तु का संसर्ग सर्वथा निषिद्ध है। पुष्टिमार्ग में दीक्षित होने पर जीव कश्तार्थ हो जाता है। प्रत्येक वस्तु का समपर्ण पहले प्रभु के लिए किया जाता है। बाद में प्रसादी के रूप में अपने लिए होता है। सदा सर्वथा भगवान का स्मरण करते रहे। ”तस्माद् सर्वात्मना नित्यं श्रीकश्ष्णः शरण मम” पुष्टिमार्गीय उत्सवों का स्वरूप प्रकार उत्सव का तात्पर्य महाप्रभु श्रीमद् वल्लभाचार्य जी ने श्रीमद्भागवत की सुबोधिनी टीका में वर्णित किया है ”उत्सवें ननाम मनसः सर्व विस्मारक आल्हाद उत्सव साम्पादनाथ सजातीयान् एव रसोत्पादनाथ विशेषमाह।

     अपने तनमन को भुलाकर हर्षोल्लास पूरित भाव से अपने सजातीय के संग जो रसाप्लावित होकर जो भाव, प्रेम उत्पन्न होता उसे उत्सव कहा जाता है।

     उत्सवों का आयोजन प्रथम वैदिक काल में विध्नों, मनोभिललित कामनाओं की पूर्ति के लिए देवपूजन के रूप यज्ञानुष्ठान के रूप में आयोजित हुआ था।

     पुष्टिमार्ग के प्रणेता आचार्य चरण श्रीमहाप्रभुजी ने इसी उत्सव की परिपूर्ण भावना को आधार मानकर पुष्टिमार्ग में प्रभु के साथ आनंदानुभूति का सुख जो गोपियों को प्राप्त हुआ था उसी की अनुभूति के लिए उत्सवों को प्रणयन किया तथा घोर कलिकाल की साम्प्रदायिक विषमताओं से एवं लौकिक चिन्ताओं से जीव को छुटकारा मिले ऐसी स्थिति का तत्कालीन वातावरण में फैले हुए दुष्प्रभाव को दूर करने के लिए व मन को लोकासक्ति से हटाने के लिए जीव को प्रभु के सम्मुख वेदादि शास्त्र सम्मत स्वरूपों में उत्सवों का क्रम प्रचलित किया था। उत्सवों की भावभूमि विशद्रूप श्री वल्लभाचार्य के समय अधिक नहीं हुआ था किन्तु आपके द्वितीय पुत्र श्री गुसाईं विट्ठलनाथ जी ने उत्सवों तथा महोत्सवों को विराटरूप में भव्य व दिव्य रूप से मनाने का क्रम निश्चित किया।

     महाप्रभु वल्लभाचार्य ने सेवा के दो प्रकार निर्देशित किये है- नित्योत्सव एवं वर्षोत्सव। नित्योत्सव के सेवा विधान में भोग, राग और श्रृंगार सेवा की इन तीनों विद्याओं का ऐसा सुन्दर स्वरूप निर्धारित किया गया है कि प्रत्येक तिथि और वार जो रितु अनुसार, नित नवीन राग कीर्तन सेवा में गाये जाय।

     वर्षोत्सव में वर्ष भर में होने वाली सभी महत्त्वपूर्ण लोक जीवन के मेले त्यौहार उत्सवों को समाहित किया गया है। वर्षोत्सव के अधिकांश उत्सवों श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं एवं लोकपर्वों से सम्बंधित है। महाप्रभु श्रीमद् वल्लभाचार्य जी द्वारा स्थापित और गुसाई श्री विट्ठलनाथजी द्वारा सज्जित की गई पुष्टि मार्ग की यह पुष्ट सेवा प्रणाली गोवर्द्धन पर्वत पर श्रीनाथजी के मन्दिर में प्रारम्भ की गई थी।

————————————————————————————————————————————-

     वेदों में सर्वव्यापक परम तत्त्व को विष्णु कहा गया है। विष्णु का परम पद, परम धाम दिव्य आकाश में स्थित एवं सूर्य के समान देदीप्यमान माना गया है – ‘तद् विष्यों: परमं पदं पश्यन्ति सूरयः। दिवीय चक्षुरातातम् (ऋग्वेद १/२२/२०)। विष्णु अजय गोप हैं, गोपाल हैं, रक्षक हैं और उनके गोलोक धाम में गायें हैं – ‘विष्णुर्गोपा’ अदाभ्यः (ऋग्वेद १/२२/१८) ‘यत्र गावो भूरिश्रृंगा आयासः (ऋग्वेद १/१५) । विष्णु ही श्रीकृष्ण वासुदेव, नारायण आदि नामों से परवर्ती युग में लोकप्रिय हुए। ब्राह्मण ग्रन्थों में इन्ही विष्णु को यज्ञ के रूप में माना गया – ‘यज्ञो व विष्णु:’। तैत्तिरीय संहिता, शतपथ ब्राह्मण और ऐतरेय ब्राह्मण में इन्हे त्रिविक्रम रूप से भी प्रस्तुत किया गया है, जिनकी कथा पुराणों में वामन अवतार के रूप में मिलती है। विष्णु के उपासक, भक्त वैष्णव कहे जाते हैं। विष्णु को अनन्त ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य रूप ‘भग’ से सम्पन्न होने के कारण भगवान् या भगवत् कहा जाता है। इस कारण वैष्णवों को भगवत् नाम से भी जाना जाता है – जो भगवत् का भक्त हो भागवत्। महाप्रभु श्रीमद् वल्लभाचार्य का कथन है कि इन्ही परमतत्त्व को वेदान्त में ‘ब्रह्म’ स्मृतियों में ‘परमात्मा’ तथा भागवत् में ‘भगवान्’ कहा गया है। उनकी सुदृढ़ मान्यता है कि श्रीकृष्ण ही परब्रह्म है – ‘परब्रह्म तु कृष्णो हि’ (सिद्धान्त मुक्तावली-३) वैष्णव धर्म भक्तिमार्ग है।

     भक्ति का सम्बंध हृदय की रागात्मिक वृति से, प्रेम से है। इसीलिए महर्षि शांडिल्य को ईश्वर के प्रति अनुरक्ति अर्थात् उत्कृष्ठ प्रेम मानते हैं और देवर्षि नारद इसे परमात्मा के प्रति परम प्रेमस्वरूपता कहते हैं। वैष्णव भक्ति का उदय और प्रसार सबसे पहले भगवान् श्रीकश्ष्ण की जन्मभूमि और लीलास्थली ब्रजमंडल में हुआ। तंत्रों में भगवान् श्रीकृष्ण के वंश के आधार पर ही वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरूद्ध ये चार व्यूह माने गये हैं। एक समय ऐसा आया था जबकि वैष्णव धर्म ही मानों राष्ट्र का धर्म बन गया था। गुप्त नरेश अपने आपको ‘परम भागवत्’ कहलाकर गोरवान्वित होते थे तथा यूनानी राजदूत हेलियोडोरस (ई.पू. २००) ने भेलसा (विदिशा) में गरूड़ स्तम्भ बनवाया और वह स्वयं को गर्व के साथ ‘परम भागवत्’ कहता था। पाणिनि के पूर्व भी तैत्तिरीय आरण्यक में विष्णु गायत्री में विष्णु, नारायण और वासुदेव की एकता दर्शायी गयी है – ‘नारायणाय विद्मेह वायुदेवाय धीमहि तन्नों विष्णु प्रचोदयात्’। सातवी से चौदहवी शताब्दि के बीच दक्षिण के द्रविड क्षेत्र में अनेक आलवार भक्त हुए, जो भगवद् भक्ति में लीन रहते थे और भगवान् वासुदेव नारायण के प्रेम, सौन्दर्य तथा आत्मसमर्पण के पदो की रचाना करके गाते थे। उनके भक्तिपदों को वेद के समान पवित्र और सम्मानित मानकर ‘तमिलवेद’ कहा जाने लगा था। वैष्णवों के चार प्रमुख सम्प्रदाय माने जाते है। यह माना जाता है कि इनका प्रवर्तन भगवान की इच्छा से ही हुआ है। ये है – (१) श्री सम्प्रदाय, (२) हंस सम्प्रदाय, (३) ब्रह्म सम्प्रदाय और (४) रूद्र सम्प्रदाय।

(१) श्री सम्प्रदाय – यह सम्प्रदाय ‘श्री’ देवी के द्वारा प्रवर्तित है। इसके आद्य आचार्य रंगनाथ मुनि हैं। उनके पौत्र यामुनाचार्य ने इसे बढाया और रामानुजाचार्य ने इसे गौरव के शिखर पर पहुँचा दिया। इसे आजकल रामानुज सम्प्रदाय के नाम से जाना जाता है। इस सम्प्रदाय के अनुयायी ‘श्री वैष्णव’ कहलाते हैं। इनका दार्शनिक सिद्धान्त ‘विशिष्टाद्वैत’ है। ये भगवान् लक्ष्मीनारायण की उपासना करते है।

(२) हंस सम्प्रदाय – इस सम्प्रदाय के आदि उपदेशक भगवान् हंस हैं। उनसे सनकादि मुनि और देवर्षि नारद से होती हुई परम्परा निम्बार्काचार्य तक पहुँचती है। वर्तमान में इसे ‘निम्बार्क सम्प्रदाय’ के नाम से जाना जाता है। इनका दार्शनिक मत द्वैताद्वैत या भेदाभेद है। इस सम्प्रदाय में भगवान् कृष्ण और राधाजी के युगल स्वरूप की उपासना की जाती है।

(३) ब्रह्म सम्प्रदाय – इसके प्रवर्तक ब्रह्माजी और प्रतिष्ठापक श्री मध्वाचार्य माने जाते हैं। इनका दार्शनिक मत द्वैतवाद है। इस सम्प्रदाय में श्रीहरि, विष्णु ही परतर या सर्वोच्च तत्त्व है। इस सम्प्रदाय में भी भगवान् विष्णु के ही श्रीकृष्ण, श्रीराम आदि स्वरूपों की आराधना होती है।

(४) रूद्र सम्प्रदाय – इस सम्प्रदार्य के प्रवर्तक रूद्र और प्रतिष्ठापक आचार्य विष्णु स्वामी हैं। श्रीमद्वल्लभाचार्य ने इसे गौरव के शिखर पर पहुँचाया । इनका दार्शनिक सिद्धान्त ‘शुद्धाद्वैत ब्रह्मवाद’ है। यहाँ भगवान् श्री कृष्ण की ही भावमयी सेवा होती है। इसे ‘वल्लभ सम्प्रदाय’ या ‘पुष्टिमार्ग’ के नाम से जाना जाता है। इस मत के अनुयायी ‘पुष्टिमार्गीय वैष्णव’ कहलाते हैं। नाथद्वारा में विराजित श्रीनाथजी पुष्टिमार्ग के सर्वस्व हैं। यहाँ पुष्टिमार्ग की प्रधान पीठ या गृह है। पुष्टिमार्ग भगवत्कृपा का मार्ग है। पुष्टिमार्गीय वैष्णव का विश्वास है कि भगवत्कृपा से ही जीव में भक्ति का उदय होता है तथा उसे भगवत्सेवा का सौभाग्य प्राप्त होता है। प्रभु की प्राप्ति परम प्रेम से ही होती है। स्नेहात्मिका सेवा और दैन्य से प्रभु रीझते हैं और भक्त को स्वानुभव कराकर कृतार्थ कर देते हैं। प्रभु श्री गोवर्धनधर इतने कृपालु हैं कि निकुंज के द्वार पर खडे़ होकर वामभुजा उठा कर भक्तों को टेरते हैं तथा उनके मन को वश में करके अपनी मुट्ठी में रख लेते हैं। प्रभु श्रीकृष्ण की भक्ति फलात्मिका है और प्रभु स्वयं ही फल है। उनकी कृपा जीव की कृतार्थता है। यह वैष्णव जीवन की सबसे बड़ी साध है – यही वैष्णव जीवन का लक्ष्य है।

     श्रीमद् वल्लभाचार्य के जी द्वितीय पुत्र गुसाईंजी श्री विट्ठलनाथजी ने सांप्रदायिक उत्तरदायित्व संभालते ही सबसे पहले पुष्टिमार्गीय सेवा के विस्तार का आयोजन किया था। उसके लिए उन्होंने श्री गोवर्द्धन धरण प्रभु श्रीनाथजी के नित्योत्सव और वर्षोत्सव की सेवा विधियों को अत्यन्त भव्य, गंभीर और कलात्मक रूप से प्रचलित किया। इनके सम्बंध में जो क्रम निर्धारित किया था, वही क्रम अभी तक पुष्टि संप्रदाय के मंदिरों में प्रचलित है। नित्योत्सव और वर्षोत्सव की सेवा विधियों के तीन प्रमुख अंग है- श्रृंगार, भोग, राग।

     श्रृंगार :- ठाकुर जी के वस्त्राभूषण और उनकी साज – सज्जा को श्रृंगार कहते हैं। महाप्रभु श्री वल्लभाचार्यजी के समय में श्रीनाथजी के श्रृंगार के केवल दो उपकरण ”पाग” और ”मुकुट” थे। गुसाईंजी श्री विट्ठलनाथजी ने उनका विस्तार दो स्थान पर आठ उपकरण प्रचलित किये थे। (१) मुकुट (२) सेहरा (३) टिपारा (४) कुल्हे (५) पाग (६) दुमाला (७) फेंटा और ग्वाल पगा वे उपकरण ठाकुर जी के श्री मस्तक के श्रृंगार है। इनके साथ ही श्री ठाकुर जी और श्री स्वामिनीजी के मस्तक, मुख, कंठ, हस्त, कटि, और चरणारविंद के अनेक श्रृंगार किये जाते हैं। इनमें बहुसंक्ष्यक आभूषणों का श्रृंगार धराते समय उपयोग किया जाता है।

     श्री ठाकुर जी और स्वामिनीजी के आभूषणों के साथ उनके विविध भांति के वस्त्रों की भी व्यवस्था की गई जो ऋतुओं के अनुसार बदलती रहती है। जैसे शीतकाल में भारी, मोटे वस्त्र तथा रूई के गद्ल आदि होते हैं और उष्णकाल में हलके, पतले तथा भीने वस्त्रादि। इन वस्त्राभूषणों को किस प्रकार धराया जाता हैं, इनका एक सुनियोजित क्रम का निश्चित विधान है। पूरे वर्ष के प्रतिदिन के श्रृंगार की प्रणालिका निर्धारित है। उसी के अनुसार तिथि, मिति, उत्सव, महोत्सव के अनुसार श्रृंगार धराये जाते हैं। श्रृंगार के साथ मन्दिर की साज सज्जा के पर्दे (टेर), पिछवाई, खंडपाठ चौकी, पीठिका आदि का भी आवश्यक प्रबंध किया गया है। इन साज सज्जा में भी ऋतुओं के अनुसार परिवर्तन होता रहता है। इस प्रकार सुन्दर वस्त्राभूषण और रंग-बिरंगी साज-सज्जा से ठाकुरजी के राजश्री झांकियों का आनन्द प्राप्त कर वैष्णव भगवत्गण इन संप्रदाय की ओर सदा ही आकर्षित होते रहे हैं। श्रृंगार के विस्तार में इस सम्प्रदाय के कईं महत्त्वपूर्ण कलाओं की उन्नति में बड़ा योग दिया है। अपने प्रभु के प्रिप्यर्थ नवरत्नों के आभूषणों को धराया जाता है। श्री गोवर्द्धनधरण श्रीनाथजी के श्रृंगार में आभूषणों में हीरा, पन्ना, मोती, माणक, कुन्दर, सोने के आभूषणों की शोभा अपरम्पार है। सुन्दर से सुन्दर, उत्तम से उत्तम प्रकार के आभूषणों को धरा कर ठाकुर जी के दर्शन से भक्तजन आनन्दित हो जाते हैं। लगता है वही साक्षात् यशोदानंदन है, श्री कृष्णगोपाल है, यही ब्रज है, यही नंदालय है।

     भोगः- खान पानादि के विविध पदार्थो को सुन्दर और शुद्ध रूप से प्रस्तुत कर उन्हे श्रीठाकुरजी को अर्पित समर्पित करने को भोग कहते हैं। समर्पित भोग प्रसाद कहलाता है। श्री वल्लभाचार्य जी के समय सखड़ी, अनसखड़ी और दूध की कतिपय सामग्री तथा फल मेवा का भोग धराया जाता था। श्री विट्ठलनाथजी ने भोग का भी बड़ा विस्तार किया था। उन्होंने पचासों भोज्य सामग्रियों को ठाकुरजी की सेवा में विनियोग कर एक ऐसी समुन्तत पाक-कला को जन्म दिया जो इस संप्रदाय की उल्लेखनीय विशेषता रही है। पुष्टि संप्रदाय की पाक कला का पूरा वैभव कुण्डवाड़ा। अन्नकूट और सबसे बढकर छप्पनभोग की झांकियों में दिखलाई पड़ता है। यदि गुसाईंजी श्री विट्ठलनाथजी उनकी व्यवस्था न करते, तो आज सैंकडों प्रकार की भोज्य सामग्रियों के बनाने की विधि ही लुप्त हो गई होती। अन्नकूट का प्रचलन तो श्री वल्लभाचार्य के समय मे ही हो गया था, यद्यपि उसका बहुत छोटा रूप था किन्तु बड़े अन्नकूट और छप्पन भोग बाद में श्री गुसाईंजी ने प्रचलित किये थे। छप्पनभोग में षट्ऋतुओं के सभी मनोरथ करने आवश्यक होते हैं । इसलिए उसे वृहत् रूप में सम्पन्न किया जाता है। सांप्रदायिक उल्लेखों के अनुसार श्री गुसाईंजी श्री विट्ठलनाथजी ने सं. १६१५ में श्रीनाथजी का प्रथम छप्पनभोग करने पश्था प्रचलित की। सं. १६४० में श्री विट्ठलनाथजी ने गोकुल में वृहत् छप्पनभोग किया था। जिसमें गोकुल गोपालपुर के सभी सेव्य स्वरूप (नवनिधि)उ पधराये गये थे। (वार्ता साहित्य एक वृहत् अध्ययन पृष्ठ-३०३) श्रृंगार और भोग की सांप्रदायिक भावना का विराट् विवेचन भी गोकुलनाथजी कथित रहस्य भावना की वार्ता में हुआ है। (वल्लभीय सुधा वर्ज ११ अंक १-२)

     रागः- श्री ठाकुर जी की सेवा में राग का साधन बड़ा महत्त्वपूर्ण है। राग में गायन करने से मन शीघ्र ही एकाग्र होता है। इसलिए इसे निरोध का सार्थक माना गया है। श्रीवल्लभाचार्यजी ने निरोधमयी पुष्टिमार्गीय सेवामें राग सहित कीर्तन करने का आवश्यक विधान किया था। आचार्य श्री का कथन है – अपने सुख के लिए आनन्द स्वरूप भगवान का कीर्तन गान करना चाहिए। कीर्तन गान से जैसा सुख मिलता है वैसा सुख शुकदेवादि मुनीश्वर को आत्मानंद में भी नहीं मिलता। इसलिए सब कुछ छोड़ कर चित के निरोधार्थ सदैव प्रभु का गुण गान करना उत्तम हैं। ऐसा करने से ही सच्चिदानंदता सिद्ध होती है। (निरोध लक्ष्मण् श्लोक ४-६-९)

     श्रीवल्लभाचार्य ने श्रीनाथजी की सेवा के आरम्भिक दिन से ही उनके कीर्तन गान की व्यवस्था की थी। आप श्री ने सर्वप्रथम कुंभनदास और सूरदास तथा परमानन्ददास को श्रीनाथजी का कीर्तनिया नियुक्त किया। इन कीर्तन को अनेक राग रागनियों में ताल स्वर और विविध वाद्यों के साथ अत्यन्त विकसित एवं समुन्नत रूप प्रदान करने का श्रेय श्री विट्ठलनाथजी को है। आपने श्रीनाथजी की आठों झांकियों में समय और ऋतु के रागों द्वारा ही कीर्तन करने का जो क्रम निर्धारित किया था, वह पुष्टि संप्रदाय के मन्दिरों में अभी तक यथावत् प्रचलित है। श्रीनाथजी की कीर्तन सेवा को विधि-पूर्वक और भव्य रूप सम्पन्न करने के लिए गुसाईंजी श्रीविट्ठलनाथजी ने सं. १६०२ में ही अष्टछाप की स्थापना कर दी थी। यद्यपि तब तक उन्होंने आचार्यवत्व भी ग्रहण नहीं किया था। पुष्टि संप्रदाय सेवामें राग, सेवा अत्यधिक महत्त्वपूर्ण मानी गई है। अष्टछाप से कीर्तनकारों द्वारा जिस विशाल पद साहित्य का निर्माण हुआ, वह पुष्टि संप्रदाय की धार्मिक महत्ता सांस्कश्तिक चेतना और साहित्यक समृद्धि का सूचक है। ये आठ कवि गण – पहले श्रीनाथजी के परम भक्त थे। (ब्रजस्थ वल्लभ संप्रदाय का इतिहास – प्रभुदयाल मीत्तल)

    श्री गुसाईंजी श्रीविट्ठलनाथजी ने श्रीनाथजी की आठों भक्तियों में उनकी लीला-भावना के अनुसार समय और ऋतु के रागों द्वारा कीर्तन करने की व्यवस्था की थी। अपने चार और अपने पिता श्री के चार भक्त गायक शिष्यों की एक मंडली संगठित की थी। मंडली के आठों महानुभाव श्रीनाथ जी के परम भक्त होने के साथ अपने समय में पुष्टि-संप्रदाय के सर्वश्रेष्ट संगीतज्ञ, गायक और कवि भी थे। उनके निवार्चन से श्री गोस्वामी विट्ठलनाथजी ने उन पर मानों अपने आशीर्वाद की मौखिक ‘छाप’ लगाई थी, जिससे वे ‘अष्टछाप’ के नाम से प्रसिद्ध हुए। पुष्टि संप्रदाय की भावना के अनुसार वे श्रीनाथजी के आठ अंतरंग सखा है, जो उनकी समस्त लीलाओं में सदैव उनके साथ रहते हैं, अतः उन्हे अष्टसखा भी कहा गया है। (अष्टछाप परिचय पृष्ठ १-२)

अष्टछाप अथवा अष्ट सखा की शुभ नामावली इस प्रकार है-

श्री वल्लभाचार्य जी के शिष्य

१. कुंभनदास जी

२. सूरदास जी

३. कृष्णदास जी

४. परमानंददास जी

श्री गुसाईंजी विट्ठलनाथजी के शिष्य

५. गोविन्द स्वामी जी

६. छीत स्वामी जी

७. चतुर्भुजदास जी

८. नंददास जी

     आचार्य श्री के समय में श्रीनाथजी के प्रथम नियमित कीर्तनकार सूरदास थे। बाद में परमानंददास भी उन्हे नियमित सहयोग देने लगे थे। कुंभनदास यधपि सूरदास से पहले कीर्तन करते आ रहे थे, किन्तु गृहस्थ होने के कारण उन्हे नियमित रूप से अधिक समय देने की सुविधा नही थी। इस प्रकार श्री महाप्रभु जी के समय सूरदास और परमानंददास नियमित रूप से श्रीनाथजी की सभी झांकियों में कीर्तन करते थे तथा कुंभदास अपने अवकाश के अनुसार उन्हे सहयोग देते थे। अधिकारी कृष्णदास भी सुविधा से उनमें भाग लिया करते थे। श्री विट्ठलनाथजी ने अपने समय में श्रीनाथजी की कीर्तन प्रणाली को सुव्यवस्थित और विस्तृत किया था। अतः आठों समय की झांकियों में पृथक-पृथक कीर्तनकार नियुक्त किये जाने की आवश्यकता प्रतीत हुई थी। इसलिए इन सभी के ओसरे बांध दिये थे सभी अपने ओसरे के अनुसार सम्मुख कीर्तन करते दूसरे सभी झेलते थे।

     ये सभी कीर्तनकार प्रभु श्रीनाथजी की कीर्तन सेवा में अपने जीवन के अन्तिम समय तक रहे और अपना जन्म सफल किया। इन अष्ट शाखाओं के पद ही कीर्तन सेवामें गाये जाते हैं।

Need Help?

Main Menu